फुर्सत की तंगी

 वक्त के बटुए में आजकल ' फुर्सत ' की तंगी है।।

जिम्मेदारियां, कर्तव्य, डेडलाइन्स और कमिटमेंट्स के नोट भरे जा रहे हैं,

'मस्ती' और 'सुकुन' के सिक्के कहीं खामोश कोने में दुबक पड़े हैं।।

वक्त के बटुए में आजकल ' फुर्सत ' की तंगी है।।

छत पर तौलिया सुखाते 'रेड हेड इंडियन बुलबुल'का घोंसला नज़र आया,

बीते वर्ष की तरह वहीं कोना, वहीं पौधा,

पीठ दिखाकर बुलबुल नाराज़ सी बोली- 

" इस साल मेजबानी फीकी है। नेह से निहारा नहीं"।

क्या करें,

वक्त के बटुए में आजकल ' फुर्सत ' की तंगी है।।

मेज़ पर पड़ी चीज़ें बुला रही हैं।

किताबों की एक ढ़ेर - अटलजी की कविताएं, गुलजार की पंद्रह पांच पचहत्तर, दीवाने - ग़ालिब ़़...

एक अधूरी चित्रकारी,

कुछ अधूरी रचनाएं,

...सब खिसियायी सी, रुठी नज़र आ रही हैं।

क्या करे

वक्त के बटुए में आजकल ' फुर्सत ' की तंगी है।

अंदरुनी चाहत की फिर से वही दस्तक -

" चल अदरक  वाली चाय पे मिलते हैं, 

कुछ पन्ने टटोलते हैं,

कुछ लिखते और गुनगुनाते हैं,

एक दोपहर 'आलसी" बिताते हैं"।

फिर इस न्यौते को कल के लिए टाल दिया।।

क्या करे

वक्त के बटुए में आजकल ' फुर्सत ' की तंगी है।


- --- अरुणिमा

       18.1.2024








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