शिव - पुरुषत्व और नारीत्व

 आदिदेव शिव। काल के चक्र से परे अनंत शिव।

कहते हैं कि इस ब्रह्माण्ड की शुरुआत एक ऊर्जा से हुई थी। उस ऊर्जा को शिवशक्ति के नाम से जाना गया। सर्व गुण संपन्न शिवशक्ति। एक दूसरे में समालीन शिवशक्ति।

फिर सृष्टि की संरचना के लिए शिव और शक्ति प्रतीकात्मक रूप में अलग हुए। उनके आदर्श, गुण और चेतना कभी अलग नहीं हुए। और सारी शंकाओं को दूर करने के लिए आदिदेव ने अर्धनारीश्वर का रुप लिया।।

पता नहीं कब और कहां से समाज में एक धारणा आ गयी।‌शिव को पुरुषत्व की पराकाष्ठा के रूप में देखा जाने लगा और पूजा जाने लगा। इस धारणा ने एक विकृत रूप भी ले लिया। गुणों और प्रतिभाओं को पुरुष और नारी के बीच विभाजित किया जाने लगा। धारणाएं बनती गयी और सामाजिक रिवाजों ने मुहर लगा के उन्हें सशक्त कर दिया। पुरुष और नारी के बीच भेदभाव को बढ़ावा दिया।

और भोलेनाथ तो भेदभाव से बिल्कुल परे रहे। वो तो सुर- असुर, नर, देव, मुनि जन सबके अराध्य रहे। दशानन के अराध्य भी शिव ही थे। और दशरथ नंदन ने भी युद्ध के पहले शंभु की ही पूजा की थी। पशुओं से भी उनका प्रेम उल्लेखनीय रहा है।

करुणा और ममता को नारी की झोली में डालने वाले कही भूल गये की करूणा के अवतार तो शिव शंभू ही हैं। पुरुषत्व को रौद्र गुण सौंपने वाले शक्ति के रौद्र रूपो को याद कर लेते। 

शिव तो शांति प्रिय ज्यादा वक्त समाधि में ही लीन रहे।

शिव सिर्फ रौद्र तांडव नहीं करते।‌आदियोगी नटराज भी है और नृत्य कला में पारंगत। और कैलाश तो हमेशा ही संगीत से गूंजता रहा।

शिव का अहम् इतना सशक्त कि वह हर अहंकार से अछूता रहा। नीलकंठ ने अहंकार के वश में आकर नहीं, बल्कि प्रेम में गरल पीया था। फिर पुरुष के अहम् को अहंकार में क्यों देखा जाने लगा। शिव काली के पैरों के नीचे बिना किसी अहंकार के आ गये। और इससे उनके अस्तित्व को कोई ठेस ना पहुंचीं।‌वो पूज्यनीय ही रहे।

जिनकी सोच ये कहती हैं कि नारी का स्थान पुरुष के नीचे है, वो आनंदमय शिव शंकर को देख ले। आवेगी गंगा को उन्होंने अपने सिर पर आदर सहित अपनी जटाओं में स्थान दिया है, अपने चरणों में नहीं। ना शिव के अस्तित्व में कोई अंतर आया और ना ही गंगा के। गंगा जटाओं में कैद नहीं।‌वह अब भी आवेगी है, वह करूणा का संचार भी है और समय आने पर प्रलय का प्रहार भी। 

निराकार को आकार देने में हमने उसके दैविक रूप को अपमानित कर दिया। ऊर्जा, चेतना, आदर्श, गुण, प्रतिभा...सब किसी लिंग विशेष के नहीं।‌ 

शिवोहम, शिवोहम। अर्थात मै शिव हूं, मैं शिव हू। मै उस आनंदमय चेतना का स्वरूप हूं।‌ यह चेतना पुरुषत्व और नारीत्व के परे है।‌ यह एक जागरूक चेतना और दैविक उर्जा की बोल हैं।‌

अगर शिव को किसी व्यक्ति विशेष या लिंग विशेष तक सीमित करते हैं तो इसका अर्थ विकृत हो जाता है। " मै ही शिव हूं"... यह अहंकार में लिप्त, अंधकारमय मृत चेतना की बोल हैं।‌‌और यह शिव का घोर अपमान है।



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